पिंजड़े वाले शहर में प्रेम


[१ जनवरी २०११ को जनसत्ता में प्रकाशित]

प्रेम ना बारी नीपजै/ प्रेम ना हाट बिकाइ/ राजा-परजा जिस रुचै/ सीस देइ लै जाई// से शुरू होने वाले इस आमंत्रणपत्र पर निगाहें टिकी रह गयी थीं. वह भी कोफ़्त में नहीं वरन आश्चर्यमिश्रित प्रशंसाभाव में कि कोई विवाह का निमंत्रण ऐसे भी दे सकता है. वह भी उस दौर में जब निमंत्रणपत्र आपसी स्नेह और सामजिकता का नहीं वरन मध्यवर्गीय परिवारों के वैभव (या वैभव की चाह) का अश्लील प्रदर्शन बन कर रह गए हों. उन तमाम निमंत्रणपत्रों से अलग इस निमंत्रणपत्र में ना तो किसी धातु के बने गणेश जी थे (और इस प्रकार मेरी आस्तिक माँ के मुताबिक कमसेकम 'उनके एक गणेशजी' तो कबाड़ का हिस्सा बनने से बच गए) ना ही कागज़ की बर्बादी कर बनाया कोई भोजपत्र था. यहाँ तो बस एक प्यार भरी मनुहार थी.. या मनुहार भी कहाँ सीधी सीधी चुनौती थी.. राजा-परजा जिस रुचै/ सीस देइ लै जाई//

न्योते पर खुशी से ठिठकी रह गयी निगाहों को अभी तो और भी झटके लगने थे. यह कि हम जिस कार्यक्रम में सादर आमंत्रित थे वह सिर्फ 'विवाह' ना होकर 'प्रेम विवाह' था. मन को लगा की खाप पंचायतों और सम्मान हत्यायों वाले समाज में अंतर्जातीय प्रेम विवाह का न्योता कहीं कोई भ्रम न हो. दुबारा पढ़ा कार्ड पर लिखी इबारत अब भी वही थी -"आप हमारे प्रेम विवाह में सादर आमंत्रित हैं" और नीचे वधु और वर के हस्ताक्षर. विभावरी और प्रियंवद.

दोनों का साझा और करीबी दोस्त होने के नाते एक दशक से भी ज्यादा से इन दोनों साथियों के प्रेम, और इस जातीय विभाजन वाले समाज में उस प्रेम को सफल बनाने की जद्दोजहद का गवाह होने के बावजूद भी मन को सहसा विश्वाश नहीं हो रहा था कि यह प्रेम परिणिति तक पंहुच ही रहा है. और जब हुआ तो लगा कि इस प्रेम के सामाजिक निहितार्थों की वजह से कि इसको सबसे साझा करना लाजिमी बनता है. .

प्रियंवद और विभावरी की पहली मुलाकात करीब बारह साल पहले स्टुडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया के कोमरेड्स के बतौर इलाहाबाद में हुई थी. प्रसंगवश, इलाहाबाद की वामपंथी छात्र राजनीति कमसेकम उस समय तक तो वामपंथ की आपसी सरफुटौवल से काफी मुक्त थी और अलग अलग वामपंथी राजनैतिक संगठनों से जुड़े हुए कार्यकर्ता भी आपस में काफी अच्छे दोस्त हुआ करते थे और हमारी दोस्ती इसी वजह से थी.

ब्राहमण समाज से आनेवाले प्रियंवद और दलित परिवार से आनेवाली विभावरी का कोमरेडाना रिश्ता उन्ही सांगठनिक गतिविधियों के दौरान प्रेम में बदला और पनपा बावजूद इस बात के कि उस शहर में प्रेम करना कितना मुश्किल हो सकता है जहाँ की पुलिस सार्वजनिक स्थलों पर साथ नजर आने वाले प्रेमी युगलों को गिरफ्तार कर 'मजनू पिंजड़े' नामक 'खास वाहन' में बिठाके थाने ले जाती हो. इसी में यह भी जोड़ लें कि इसी शहर के पूरब का ऑक्सफोर्ड समझे जाने वाले विश्विद्यालय के तमाम मुख्य कुलानुशासक (चीफ प्रोक्टर) परिसर में साथ नजर आने वाले जोड़ों को पकड़ना अपना मुख्य कर्म समझते थे और सार्वजनिक स्थल पर सिर्फ लड़के से बात कर रही लडकी के परिवार को पत्र लिख कर यह बताना कि वह लडके के साथ 'आपत्तिजनक अवस्था' में पकड़ी गयी है अपना धर्म.

मतलब यह कि हिन्दी पट्टी की सांस्कृतिक राजधानी कहे और समझे जाने वाले इस शहर में प्रेम करना प्रेम ना रहकर प्रतिगामी सामजिक मूल्यों और पितृसत्ता से सीधी मुठभेड़ करना होता था और विभावरी और प्रियंवद ने यह मुठभेड़ की और खूब की.

बखैर, विभावरी ने बाद में जेनयू में प्रवेश लिया और प्रियंवद ने यहाँ मीडिया में नौकरी शुरू की. और इस तरह यह प्रेम दिल्ली पंहुचा. इन दोनों साथियों के प्रेम की सबसे ख़ास बात थी सामाजिक रुढियों और सरंचनाओं से रोज टकराते रहने के बाद भी उनके अन्दर जीवित ऊष्मा. विभावरी और प्रियंवद से रोजाना होती रही मुलाकातों में उनके संघर्ष और हौंसलों के साथ साथ दोनों परिवारों द्वारा यह रिश्ता स्वीकार न करने के कारण उपजने वाली हताशा हम मित्रों को तो जरूर डराती थी पर इन दोनों के चेहरे पर वह डर कभी नहीं दिखा. ना ही 'परिवार नहीं तैयार हो रहे तोभी विवाह कर लो, हम सब तो हैं ही' जैसे सुझावों पर दोनों का जवाब बदला, कि अगर ऐसे शादी कर ली तो सिर्फ हम बदलेंगे और अगर परिवार को राजी कर पाए तो यह सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया में एक छोटा ही सही महत्वपूर्ण कदम होगा.

यह महत्वपूर्ण कदम उठा भी, जब इलाहाबाद में हुए इस विवाह में विभावरी के परिवार ने पूरे मन से शिरकत की. ठीक है कि प्रियंवद का परिवार अभी भी नहीं आया था पर मानसिकतायें बदलने में वक़्त तो लगता है और यूँ भी.. साहित्यकार दूधनाथ सिंह, प्रोफ़ेसर राजेन्द्र कुमार, कवि अंशु मालवीय, प्रोफ़ेसर सूर्यनारायण, कोमरेड सुधीर सिंह, इमानदार राजनीतिकों में शुमार विधायक अनुग्रह नारायण सिंह, और प्रियंवद विभावरी के हम तमाम साथियों की उपस्थिति ने परिवार की कमी कहाँ महसूस होने दी.

सबसे बेहतर बात थी इन दोनों साथियों का राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली जैसे फिर भी सुविधाजनक शहर से निकल कर मजनू पिंजड़े वाले शहर में लौट कर विवाह करना. यह इन दोनों द्वारा पितृसत्ता और यथास्थितिवाद को दी गयी सीधी चुनौती थी. बाबासाहेब आंबेडकर के शब्दों में यह अंतरजातीय विवाह जातिप्रथा से सीधी मुठभेड़ था. और शादी के उल्लास में नृत्य कर रहे साथियों को जब अचानक यह याद आया तो सब्र के सारे बांध टूट चले और हवाओं में नारे गूंजने शुरू हुए.. कोमरेड विभावरी को लाल सलाम, कोमरेड प्रियंवद को लाल सलाम, ब्राह्मणवाद मुर्दाबाद, जातिवाद मुर्दाबाद.. प्रियंवद का जवाब भी सीधा मंच से आया. पर इस श्रेणीबद्ध समाज को शायद सबसे बड़ी चुनौती आनी बाकी थी.. वह आयी भी जब अपने स्वजनों की उपस्थिति की वजह से थोडा सा सकुचा रही विभावरी ने आखिर कमान थामी और नारा बुलंद किया.. मनुवाद मुर्दाबाद.. इन्कलाब जिंदाबाद..

काश कि इस नारे का जवाब भारत का हर युवा दे. काश अगली ऐसी शादी अपवाद ना होकर नियम बने. क्यूंकि यह सिर्फ प्रेमविवाह नहीं वरन मनुवाद से सीधी मुठभेड़ है..